भारतीय शासन व्यवस्था परिवर्त्तन विचार मंच

अभियान के संबंध में

उद्देश्य

इस अभियान का उद्देश्य है भारत की वर्त्तमान शासन व्यवस्था को बदल कर ऐसी शासन व्यवस्था लाना जो वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक हो और जहाँ भारत की सम्प्रभुता प्रभावी रूप से जनता में निहित हो। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसकी कल्पना महात्मा गाँधी ने स्वतंत्र भारत के लिए की थी, इसकी जोरदार वकालत की थी और जो उनके प्रेरणादायक नेतृत्व में संचालित स्वतंत्रता आंदोलन का अन्तिम लक्ष्य था।

परिवर्त्तन क्यों

वर्त्तमान शासन व्यवस्था मूल रूप से वही व्यवस्था है जिसे अंग्रेजों ने भारत को, जो उनका प्रधानतम उपनिवेश था, व्यवस्थित और अदृश्य रूप से भ्रष्टीकृत और शोषित करने के लिए बनायी थी। ऐसा करने में यह व्यवस्था प्रभावी और कार्यकुशल थी जिसके चलते औपनिवेशिक व्यवस्था एक शताब्दी से भी अधिक अवधि तक उस भारत में अक्षुण्ण रही जो हजारों सालों की उच्च सभ्यता का वारिस था। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के साथ भारत में जो आंदोलन शुरू हुआ वह विशेषतया भारत के उच्च और मध्यम वर्गों तक ही सीमित था और जिसका उद्देश्य उनकी दशा में सुधार और भारत के औपनिवेशिक शासन में उनकी ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित करना था। कालान्तर में जब कांग्रेस के एक वर्ग ने भारत की स्वतंत्रता की माँग की तो कार्यरूप में उसका अर्थ था अंग्रेज भारत छोड़ें जिससे भारत के लोग उनकी जगह शासन करें। लेकिन गाँधी ने इसको दूसरे ही रूप में देखा। जब उन्होंने भारतीयों की, विशेषतया जो विशाल भारत के विभिन्न भागों के गाँवों में रहते थे, उनकी दयनीय स्थिति देखी, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से अनुभव किया कि वे उस शासन व्यवस्था के मूक शिकार थे जो उनपर उनके शोषण और भ्रष्टीकरण के लिए थोपी गयी थी। इसीलिए, राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय होने के अपने आरंभिक वर्षों में अहिंसक असहयोग के माध्यम से उन कानूनों, जो अन्याय एवं अत्याचार पूर्ण थे, के खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी, न कि उन कानूनों को बनाने वालों या उन्हें अमल में लाने वालों के खिलाफ। लेकिन कालान्तर में जब वे अच्छी तरह समझ गए कि ये कानून तो विदेशी शासकों की शासन व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं, और चूँकि उनके बनाए हुए इन्हीं कानूनों से उनका हित सिद्ध होता है, वे जब तक रहेंगे तब तक ये कानून भी रहेंगे, तो उन्होंने उन्हें भारत छोड़ने का आह्वान किया। वे भारत की स्वतंत्रता इसलिए चाहते थे कि उन शोषणात्मक कानूनों को खत्म करने के लिए यह आवश्यक था। उनकी सोच में भारत की मुक्ति का अर्थ था उस शोषणकारी शासन व्यवस्था से मुक्ति। इसी सोच के तहत स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने के लिए उन्होंने जनता को आह्वान किया था। जब इस संघर्ष की परिणति भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता में हुई जिससे भारत अपना संविधान बनाने के लिए सक्षम हो गया तो निर्वतमान ब्रिटिश सरकार के कुचक्र, भारत के कुछ वर्गों के निहित स्वार्थ, गाँधी के शीर्ष अनुयायियों में उनके विचारों और आदर्शों में प्रतिबद्धता का अभाव और तत्कालीन ऐतिहासिक और राजनीतिक परिस्थितियों के मिले जुले षड़यंत्र से देश के लिए एक नितांत महत्त्वपूर्ण भूल घटित हुई। लम्बे समय से दबाया हुआ एक स्वतंत्र राष्ट्र, जो एक सम्प्रभुत्वपूर्ण लोकतांत्रिक गणतंत्र बनना चाहता था, उसने अपने संविधान में वही शासन व्यवस्था अपना ली जिसके माध्यम से वह सदियों से दबाया और शोषित किया गया था। ऐसा करके भारतीय स्वतंत्रता के जनक महात्मा गाँधी का सरासर विश्वासघात किया गया और स्वतंत्रता संग्राम के बलिदानियों को ठगा गया। भारतीय गणतंत्र की जटिल से जटिलतर होती समस्याओं और विसंगतियों, जैसे राजनीति और राजनीतिक नैतिकता का ह्रास, भ्रष्टाचार, गरीबी और बढ़ती हुई आर्थिक असमानता तथा सामाजिक अशांति और अंतर्विद्रोह सभी उसी भूल के प्रत्यक्ष परिणाम हैं। अपनी विलक्षण दूरदर्शिता में महात्मा गाँधी को यह स्पष्ट आशंका थी कि यदि भारत बिना शासन व्यवस्था को बदले केवल उस व्यवस्था के संचालकों के बदलने भर से संतुष्ट हो जायेगा तो देश की दुर्गति और दुर्दशा सुनिश्चित है।

भारतीय शासन व्यवस्था परिवर्त्तन का यह अभियान मूल रूप से इसी सोच-विचार पर आधारित है।

वांछित शासन व्यवस्था की अवधारणा और स्वरूप

शासन व्यवस्था परिवर्त्तन अभियान क्यों अनिवार्य है यह समझने के बाद इस अभियान के बारे में आगे जानने के पहले नई शासन व्यवस्था है क्या और यह वर्त्तमान शासन व्यवस्था से किस तरह से भिन्न और विशिष्ट है इसकी कुछ समझदारी आवश्यक है। सर्वप्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण भिन्नता तो राजसत्ता के श्रोत और इसकी रूपरेखा से सम्बंधित है। भारत के गणतंत्र होने के पूर्व इसके औपनिवेशिक शासन सत्ता का मूल श्रोत या सम्प्रभुता ब्रिटिश सम्राट में निहित थी, जहाँ से निकल कर ब्रिटिश संसद होते हुए दिल्ली स्थित भारत सरकार में Govt. Of India Act 1935 के प्रावधानों के अनुरूप आती थी और जिसके तहत प्रदेशों को सीमित स्वायत्तता मिली थी। राजशक्ति की रूपरेखा एक पिरामिड की तरह थी, जिसमें शीर्ष पर विराजमान राजसत्ता ऊपर से नीचे विभिन्न स्तरों पर क्रमशः क्षीण होती हुई जब पिरामिड की विशाल निचली आधार सतह तक आती थी तो अति सीमित मताधिकार के रूप में वह बहुत ही न्यूनतम और नाम मात्र की हो जाती थी। जब भारत स्वतंत्र हुआ और इसने अपना संविधान बनाया, जो 26 जनवरी 1950 को कार्यान्वित हुआ, उसके तहत भारत को एक सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया। इस गणतंत्र में सिद्धांत रूप से सम्प्रभुता जनता में निहित है, जिसने इस संविधान को "अपनाया, कार्यान्वित किया और अपने को अर्पित किया"। लेकिन चूँकि संविधान में मूलतः वही शासन व्यवस्था जो Govt. Of India Act 1935 में थी, रख ली गई, शासकीय शक्ति की वही संरचना रही, यथा पिरामिड की तरह शक्ति ऊपर से नीचे की ओर क्रमशः क्षीण होती हुई प्रवाहित, निम्नलिखित विशिष्टताओ के साथ। संविधान में सरकार का संघीय स्वरूप रखा गया है जिसमे शासन के कतिपय उल्लिखित विषयों में राज्यों को स्वायत्तता दी गई है। फलस्वरूप सत्ता की परस्पर प्रभावी दो पिरामिडीय संरचना अस्तित्व में आ गयी। दोनो पिरामिडों का आधार एक ही है - विशाल जनसमूह। जनसमूह के इस आधार में प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को एक सीमांकित निर्वाचन क्षेत्र के राज्यीय या केन्द्रीय विधायिकाओ के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने का मताधिकार प्राप्त है। वह राजनीतिक दल या दलों का वह संगठन जिसके प्रतिनिधियों का अपनी-अपनी विधायिकाओं में बहुमत होगा, उसे उस स्तर की सरकार, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार, गठित करने का अवसर मिलेगा। गठित करने का अर्थ है उस सरकार के विभिन्न कार्य विभागों के मंत्रियों को नियुक्त करना जो उन विभागों के शीर्षस्थ व्यक्ति होंगे और जिनके अधीन विभाग की विशाल नौकरशाही काम करेगी। ये मंत्री या तो जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित विधायिका (लोकसभा या विधानसभा) या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित परिषद् (राज्य सभा या विधान परिषद्) के सदस्य होते हैं। इससे स्पष्ट है कि सम्प्रभुत्वपूर्ण जनता अपने में केन्द्रित राजसत्ता को इतने अप्रत्यक्ष और जटिल रूप से उपयोग में ला पाती है कि यह प्रभावी नहीं हो पाती। कार्यरूप में कहें तो जनता की हैसियत एक वोट बैंक की हो जाती है जिसे सत्ताकांक्षी व्यक्ति या दल विभिन्न हथकंडे का इस्तेमाल कर, यथा जाति, समुदाय, बाहुबल और धन बल, प्रभावित करने का प्रयास करता है। इस तरह, लोकतंत्र मात्र एक मृगमरीचिका बन कर रह जाता है। यथार्थ में जनता की सभी संवैधानिक आकांक्षाएं जो बड़े ही स्पष्ट रूप से संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित है, एक असंगत शासन व्यवस्था अपना लेने से नकार दी गई। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि भारत को सताने वाले सभी रोग यथा राजनीति और राजनीतिक नैतिकता में घोर गिरावट, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार, गरीबी और आर्थिक असमानता तथा सामाजिक अशांति और अंतर्विद्रोह इसी व्यवस्था की उपज हैं। हाल के दशकों में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में वैश्वीकरण और निजीकरण की नीति ने न केवल हमारी सांस्कृतिक परम्परा और समाजवाद के संवैधानिक प्रावधान पर कुठाराघात किया है बल्कि व्यवस्थाजनित इन समस्याओं को और भी विकराल कर दिया है।

वांछित शासन व्यवस्था वर्त्तमान व्यवस्था से वैचारिक और संरचनात्मक दोनों रूपों से भिन्न और विशिष्ट है। वांछित व्यवस्था की मौलिक बात है कि राजसत्ता व्यक्ति में केन्द्रित है और उसी श्रोत से शासन के विभिन्न स्तरों पर निःसृत होती है, न कि उल्टी दिशा में जैसा अभी की व्यवस्था में है। एक शांत झील में पत्थर का एक टुकड़ा गिराने से जल में जो हलचल पैदा होता है, उस दृष्टांत से वांछित शासन व्यवस्था की संरचना समझी जा सकती है। उस हलचल के केन्द्र से समकेन्द्रित वृत्तों में तरंगें उठती हैं। वे वृत्ताकार तरंगें जो केन्द्र से नजदीक होती हैं वे अधिक प्रबल होती हैं लेकिन उनका तरंगित क्षेत्र छोटा होता है और जो केन्द्र से दूर होती हैं उनका तरंगित क्षेत्र बड़ा होता है लेकिन तरंग की प्रबलता कम होती है। इस दृष्टांत में हलचल का केन्द्र व्यक्ति है, शांत जल शासन क्षेत्र है तथा समकेन्द्रित वृत्ताकार तरंगें सरकार के विभिन्न स्तर है। यदि हम त्रिस्तरीय सरकार की कल्पना करें तो वह समकेन्द्रित तरंग जो व्यक्ति के सबसे समीप होगी वह ग्राम या नगर सरकार होगी। उसके बाद राज्य सरकार और सबसे दूर की समकेन्द्रित तरंग होगी राष्ट्रीय सरकार जिसका शासन क्षेत्र पूरा राष्ट्र होगा। वे सभी विषय क्षेत्र जिनका जनता के जीवन और जीने से प्रत्यक्ष सम्बंध होगा या उनपर सीधा प्रभाव लायेगा, यथा विद्यालयी शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, ग्रामीण या नगरीय सड़कें, जलापूर्ति तथा विधि-वयवस्था ग्राम या नगर सरकार के अधीन होगा। इसी तरह, राज्य सरकार के अधीन वे विषय क्षेत्र होंगे जो स्थानीय स्तर पर नहीं किए जा सकते, यथा उच्च शिक्षा, विशिष्ट स्वास्थ्य सेवायें, राज्यीय पथ, अन्तर्राज्यीय नदी प्रबंधन, कृषि, इत्यादि। फिर, राष्ट्रीय सरकार पर उन विषय क्षेत्रों का उत्तरदायित्व होगा जिनका राष्ट्रीय प्रसंग है, जैसे रक्षा, विदेश सम्बंधित कार्य कलाप, राष्ट्रीय राजमार्ग, अन्तर्राष्ट्रीय नदी-बेसिन प्रबंधन और विकास, डाक एवं संचार सेवा, रेलवे, अंतरिक्ष विज्ञान एवं तकनीक, हवाई यातायात, विज्ञान विकास इत्यादि। हालाँकि विषय क्षेत्रों के दोहरेपन से यथासम्भव बचा जायेगा, लेकिन विभिन्न स्तरों की सरकारों में अन्योनाश्रय तथा अन्तर्प्रक्रिया अपरिहार्य होगा, जो संवैधानिक प्रावधानों द्वारा स्पष्ट रूप से नियंत्रित होगा। शासन की सुविधा के लिए ग्राम या नगर सरकार तथा राज्य सरकार के बीच शासन का एक और स्तर हो सकता है और कुछ विशिष्ट सेवाओं को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए कुछ विशिष्ट उद्देशीय सरकारें हो सकती है, जैसे विद्यालयी शिक्षा के लिए। प्रत्येक स्तर की सरकार का गठन लोकतांत्रिक चुनावों के आधार पर होगा और उसे अपने अधीनस्थ विषय क्षेत्रों और उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने के लिए पूर्ण वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता होगी। शासन का कोई स्तर किसी दूसरे स्तर से नीचे या ऊपर नहीं होगा। इस तरह, ऐसी शासन व्यवस्था वर्त्तमान व्यवस्था से विचार और संरचना दोनों दृष्टियों से भिन्न और विशिष्ट होगा। इसमें राजशक्ति की संरचना पिरामिड की तरह न होकर समकेन्द्रित वृत्तों के रूप में होगी, जिसमें हर स्तर की सरकार अपनी राजशक्ति केन्द्र में विराजमान जनता से प्राप्त करेगी।

इस शासन व्यवस्था को सम्भव और प्रभावकारी बनाने के लिए प्रशासनिक और राजस्व उपव्यवस्थाओं की रूपरेखा तदनुरूप ही सुनिश्चित करनी होगी।

इस तरह की शासन व्यवस्था वास्तविक रूप में लोकतांत्रिक होगी, जिसमें जनता में निहित संप्रभुता शासन में पूर्णरूपेण क्रियाशील होगी। राष्ट्र को ग्रसित करने वाले विभिन्न रोग इसमें स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे और एक नई राजनीति एवं एक जीवंत राष्ट्र का उदय होगा।

मार्गदर्शिका

वांछित शासन व्यवस्था वर्त्तमान व्यवस्था से वैचारिक और मौलिक रूप से भिन्न और विशिष्ट है। आम भारतीय वर्त्तमान शासन व्यवस्था से इतने लम्बे समय से अभ्यस्त हैं कि हम समझने लगे हैं कि शासन व्यवस्था ऐसी होती ही है। हमलोगों को यह कल्पना करने में कठिनाई हो सकती है कि कोई ऐसी शासन व्यवस्था हो सकती है या है जो हमारी व्यवस्था से मौलिक रूप से भिन्न हो। यही कारण है कि भ्रष्टाचार जैसे भीषण राष्ट्रीय रोग को लक्षणों के आधार पर, न कि व्यवस्था-जनित मानकर, उपचार करने के पिछले छः दशकों के हमारे सभी प्रयास बुरी तरह असफल रहे हैं और भविष्य के भी प्रयास असफल होते रहेंगे। अतः वांछित शासन व्यवस्था को देश में स्थापित करना एक क्रांतिकारी कदम होगा। यह कोई आवश्यक नहीं है कि कोई क्रांन्तिकारी परिवर्त्तन हिंसक तरीकों से ही लाया जा सकता है, विशेषतया भारत में जहाँ ऐसा रास्ता हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं से मेल नहीं खाता और जहाँ कोई ऐसी ऐतिहासिक पूर्ववर्तिता या अनुभव हो। बल्कि भारत में अहिंसक, बौद्धिक या भावनात्मक विधियों से कई महत्त्वपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनैतिक परिवर्त्तन घटित हुए हैं। अतः वांछित क्रांतिकारी परिवर्त्तन करने के लिए इस अभियान को अहिंसा के पथ पर ही चलाना श्रेयस्कर है।

वर्त्तमान शासन व्यवस्था भारतीय संविधान में ही निर्देशित है। अतः वांछित परिवर्त्तन संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा संविधान के समुचित संशोधन से संभव है। जिस समय संविधान का निर्माण हो रहा था, या किसी समय भी हमारी मान्यताओं और भविष्यदृष्टि की सीमितताओं को समझते हुए संविधान के प्रख्यात निर्माताओं ने इस तरह के संशोधनों के लिए पर्याप्त गुंजाइश रखी है। अपनी विधायी शक्तियों के अलावा हमारे संसद को संवधिान में संशोधन करने की भी शक्ति प्रदान की गयी है, जिसके लिए संसद के दोनों सदनों में साधारण बहुमत नहीं, दो तिहाई बहुमत आवश्यक होगा। इस शक्ति का उपयोग कर संविधान के "मूल स्वरूप" को अक्षुण्ण रखते हुए संविधान में कोई भी संशोधन किया जा सकता है। हालाँकि संविधान का कौन सा अंग इसके "मूल स्वरूप" को परिभाषित करता है इस पर कानूनी वाद-विवाद चलते रहे हैं, लेकिन इस विचार से सभी सहमत हैं कि संविधान की प्रस्तावना, जो संविधान से जनता की आकांक्षाओं अपेक्षाओं को व्यक्त करती है, संविधान के मूल स्वरूप को निहित और परिभाषित करती है। शासन व्यवस्था तो प्रस्तावना में व्यक्त इन आकांक्षाओं को फलीभूत करने का एक साधन और तंत्र है। छः दशकों की लम्बी संवैधानिक यात्रा से यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है कि संविधान में अपनायी गई शासन व्यवस्था इसके लिए सर्वथा असंगत और अनुपयुक्त है। इसके चलते भारतीय स्वतंत्रता के अधिष्ठाता महात्मा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानियों और सर्वोपरि तो राष्ट्र के विशाल जन समुदाय की सारी आकांक्षाएँ धरी-की-धरी रह गईं। भारत एक लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, संप्रभुतापूर्ण गणतंत्र राष्ट्र, जिसमें न्याय, स्वाधनता, समता, बंधुता और व्यक्ति की प्रतिष्ठा एवं राष्ट्र की एकता और अखंडता सुरक्षित हो, होने की भ्रांति में कराहता रहा है। भारतीय गणतंत्र में जो आरम्भ से ही पथ-विचलित रहा है, भारत की यह कराह समय के साथ तीव्र से तीव्रतर होती गयी है। अतः यह समय की पुकार है कि अपने उत्तरदायित्व और अधिकार का निर्वहन करते हुए संसद संवधिान में आवश्यक संशोधन करके उपयुक्त शासन व्यवस्था को संविधान मं प्रतिष्ठापित कर गणतंत्र को सही पथ पर ले आए।

संसद के दोनों सदन, लोक सभा और राज्यसभा, जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों से गठित होते हैं। जब कि लोक सभा में सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्येक 5 वर्ष पर जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित 550 सदस्य होते हैं, राज्य सभा में राज्यों की विधायिकाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा निर्वाचित 238 सदस्य होते हैं जिसमें एक तिहाई सदस्य प्रति 6 वर्ष पर निवृत्त होते रहते हैं।

अतः यह सुनिश्चित करने के लिए कि संसद वांछित शासन व्यवस्था स्थापित करने हेतु संविधान में समुचित संशोधन करे, पहले तो शासन व्यवस्था परिवर्त्तन करने के लिए हमे जनता को जागृत, शिक्षित और अभिप्रेरित करना है। फिर, एक ऐसे राजनीतिक दल को अस्तित्व में लाना होगा जो शासन व्यवस्था परिवर्त्तन के लिए प्रतिबद्ध हो और जिसके कार्यक्रम और चुनाव घोषणा पत्र में इसका सर्वोपरि और महत्त्वपूर्ण स्थान हो। समुचित रूप से जागृत, शिक्षित और अभिप्रेरित जनता ऐसे राजनीतिक दल को केन्द्र और राज्यों में अवश्य ही सत्ता में लायेगी। तब संसद और राज्य विधायिकाएं संविधान में आवश्यक संशोधन करके परिवर्त्तित शासन व्यवस्था ला पायेंगी। गाँवों से लेकर केन्द्र तक पूरी सरकारी संरचना संशोधित संविधान में प्रतिष्ठापित शासन व्यवस्था के अनुरूप विधायी और प्रशासनिक प्रक्रियाओं द्वारा रूपांतरित हो जायेगी। ऐसी शासन व्यवस्था में, वह राजनीतिक दल जिसने व्यवस्था परिवर्त्तन में प्रमुख भूमिका निभायी और देश के अन्य राजनीतिक दल अपनी सार्थकता और महत्त्व खो देंगे और उन्हें विघटित कर नयी व्यवस्था के अनुरूप दलों को पुनर्गठित करना पड़ेगा। इसी के मद्देनजर भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता मिलने के बाद गाँधी जी की अपने जीवन की अंतिम इच्छा थी कि काँग्रेस पार्टी अपने को विघटित कर नये रूप में पुनर्गठित करे। नयी शासन व्यवस्था स्थापित होने पर इसके अनुरूप देश में राजनीति के एक नये स्वरूप का आविर्भाव होगा।

इस तरह शासन व्यवस्था परिवर्त्तन का अभियान दो विशिष्ठ, क्रमिक और परस्पर प्रभावी चरणों में सम्पन्न करना होगा। पहले चरण में मुख्यतः भारत की जनता को जागृत, शिक्षित और अभिप्रेरित करना है। इस चरण में समुचित प्रगति के पश्चात् दूसरा चरण, जिसमें राजनीतिक कार्रवाई और गतिविधि करनी है, प्रारंभ करना है जिसकी परिणति होगी संविधान में संशोधन और नई शासन व्यवस्था की स्थापना।

यह कार्य निस्संदेह चुनौतीपूर्ण है लेकिन, चूँकि यह कार्य तर्कसंगत और ठोस विचारों पर आधारित है, इसे सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के बहुत से सुविधाजनक कारक हैं। इनमें ये प्रधान कारक हैं, (1) भारतीय जनता की ठोस समझदारी, विचारों की ग्राह्यता और संवेदनशीलता जिसे इसने विभिन्न ऐतिहासिक अवसरों पर दर्शाया है, (2) शासन के मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में लोकतंत्र की आम स्वीकार्यता, (3) सार्वभौमिक मताधिकार की दृढ़ स्थापना, (4) एक विश्वसनीय, कार्यकुशल और प्रभावी चुनाव आयोग और (5) सूचना और संचार तकनीकी में अभूतपूर्व और क्रांतिकारी विकास और जनसमुदाय में इसका व्यापक प्रवेश और उपयोग।

इन सब और इसी तरह के अन्य कारकों से सुविधाकृत होकर उपर्युक्त मार्गदर्शिका अपनी प्रतिभा और सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप एक नये भारत के उदय के लक्ष्य की ओर अवश्यमेव ले जायेगी।

भविष्यदृष्टि

परिवर्त्तित शासन व्यवस्था स्थापित होने पर भ्रष्टाचार और घोटाले, जो व्यवस्थाजनित हैं, दो कारणों से समाप्त हो जाएंगे। वर्त्तमान व्यवस्था में सार्वजनिक पैसा गाँवों और शहरों में रहने वाले लोगो से विभिन्न तरीकों और रूपों से चलकर राज्य के या केन्द्र के सरकारी खजानों में पहुँचता है और विकास और सेवा कार्यों के लिए फिर उन्हीं लोगों के यहाँ वापस पहुँचता है। पैसे की इस यात्रा में व्यवस्थागत (स्थापना, भ्रष्टाचार और घोटाला) और अव्यवस्थागत (नैतिक पतन) कारणों से बहुत ही नुकसान होता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी का यह मशहूर बयान कि "दिल्ली से गाँव के किसी काम के लिए भेजा हुआ एक रूपया गाँव में सिर्फ 15 पैसा ही पहुँचता है" इसी नुकसान को दर्शाता है, जिसका अधिकांश भाग भ्रष्टाचार और घोटालों के रूप में देश का काला बाजार चलाता है। इस नुकसान का दूसरा कारक है सरकार की जनता से दूरी और अपारदर्शिता। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में ये दोनों कारक नहीं रहेंगे जिससे भ्रष्टाचार के वर्त्तमान स्तर का 90% समाप्त हो जायेगा। अव्यवस्थागत, व्यक्गित या व्यवस्था में कमजोरियों के कारण जो भ्रष्टाचार होगा उसका निराकरण यथाआवश्यक कानूनों और नियमों के द्वारा किया जा सकेगा।

सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के समाप्तप्राय हो जाने से विकास की गति काफी तेज हो जायेगी, अनुमानतः वर्त्तमान गति से कम से कम दस गुणा तेज। औरर फिर, विकास की धारा गाँवों से फूटने लगेगी और अधिकांश विकास गाँवो में होने लगेगा जिससे गाँवों और शहरों का असंतुलन खत्म होगा तथा गाँवों से शहरों की ओर पलायन रूकेगा। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में अन्तर्विद्रोह का आधार ही खत्म हो जायेगा। जनसमुदाय के कुछ वर्ग में असंतोष अैार समाज के हाशिये पर जाने की भावना के फलस्वरूप अन्तर्विद्रोह ज्यादातर गाँवों अैार दूर-दराज के इलाकों में ही जन्म लेता और पनपता है और इसका निशाना होता है दूर स्थित सरकार। जब गाँव में ही एक शक्ति सम्पन्न सरकार कार्यशील होगी, अन्तर्विद्रोह स्वतः समाप्त हो जायेगा। प्रायोगिक अनुभव से भी इसकी पुष्टि हुई है। बिहार सरकार ने कुछ नक्सल प्रभावित क्षे़त्रों में ‘‘सरकार आपके द्रार'' कार्यक्रम जब शुरू किया तो देखा गया कि उन क्षेत्रो में नक्सल गतिविधियों में व्यापक गिरावट हुई। इसी तरह देश में अलगाववाद या क्षेत्रवाद जो व्यवस्था में असहभागिता या परायेवाद की भावना से जन्म लेता है, नई शासन व्यवस्था में अर्थहीन हो जायेगा। अतः परिवर्त्तित शासन व्यवस्था न सिर्फ सच्चे रूप में लोकतांत्रिक शासन बल्कि समावेशी शासन भी लायेगी।

गाँवों और शहरों में जब स्वायत्त सरकारें कार्यशील हो जायेंगी तो लोगों की सृजनात्मक और उत्पादक ऊर्जा, जो वर्त्तमान व्यवस्था में मनमाने ढंग से परिभाषित कानून और नियम जो वे समझते भी नहीं, स्वीकार करना तो दूर, कुंठित हो जाती है, पूरी तरह फलीभूत होने लगेगी। लोगों के जीवन और जीने में गुणात्मक बेहतरी के अलावा यह विभिन्न रूपों में देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी वृद्धि लायेगी। इससे न सिर्फ आर्थिक विकास की गति बढ़ेगी बल्कि यह प्रत्यक्ष रूप से गरीबी का स्तर भी घटायेगी। यह स्थिति अभी की स्थिति से भिन्न होगी जिसमें विवादास्पद रूप से यह कहा जाता है कि विकास ऊपर से नीचे की ओर बूंद-बूंद टपकती है। इससे समाज में गरीबों की संख्या में ह्रास होता जायेगा और एक समतामूलक समाज का प्रादुर्भाव होगा।

नयी अकेन्द्रीकृत शासन व्यवस्था में, जिसमें गाँवों के स्तर पर भी मजबूत सरकार होगी, देश मजबूत होगा क्योंकि केन्द्रीय सरकार ऐसे बहुत से उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जायेगी जिनका निराकरण अन्य स्तरों की सरकारों द्वारा बेहतर ढंगों से किया जा सकेगा क्योंकि ये उत्तरदायित्व उन्हीं स्तरों के लिये ज्यादा सरोकार और महत्त्व के हैं। केन्द्रीय सरकार ऐसी समस्याओं से निपटने और अपनी ऊर्जा क्षीण करने से भी निजात पा जायेगी जो हमारे देश को तबाह और कमजोर कर रही हैं जैसे भ्रष्टाचार, अन्तर्विद्रोह, अलगाववाद और राजनीति से प्रेरित अलग और छोटे राज्यों के लिए आंदोलन और मांग। जैसा हमने ऊपर देखा, परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में ये समस्याएं ही नहीं उत्पन्न होंगी। तब केन्द्रीय सरकार ऐसे उत्तरदायित्वों को निर्वहन करने में ज्यादा सक्षम होगी जो वास्तव में राष्ट्रीय स्तर के हैं, यथा रक्षा, विज्ञान और तकनीकी विकास, दूरगामी महत्त्व के ऐसे वैज्ञानिक और तकनीकी उपक्रम जैसे अंतरिक्ष विज्ञान और तकनीक, तथा निरन्तर बढ़ते हुए अन्तर्प्रभाव वाले इस वैश्विक परिवेश में अन्तर्राष्ट्रीय संबंध और समस्याएं।

परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में राजनीति के स्वरूप और संस्कृति में बहुत महत्त्वपूर्ण बदलाव आ जायेगा। आज की सत्ताकेन्द्रित राजनीति में सत्ता पाने की होड़ में ऐसा लगता है कि नैतिकता या और किसी चीज की कोई वर्जना नहीं है। जिस तरह से अंग्रेज भारत में अपना औपनिवेशिक शासन को बचाने और कायम रखने के लिए ‘‘बाँटो और राज करो'' की रणनीति अपनाते रहे, जिसकी परणति देश के बँटवारे में हुई, उसी तरह उसी उद्देश्य यानी सत्ता पाने और इसे कायम रखने के लिए आज राजनीतिक दल सिर्फ सम्प्रदाय के नाम पर नहीं, बल्कि जाति और क्षेत्र के नाम पर भी समाज को बाँटने से परहेज नहीं करते। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि इस शासन व्यवस्था में ऐसी रणनीति स्वाभाविक है। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में यह रणनीति अर्थहीन हो जायेगी क्योंकि इसमें राजनीतिक दल की पहचान होगी उसका राजनीतिक दर्शन और देश की समस्याओं और हितों के प्रति उसकी सोच और कार्यक्रम।

परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में राष्ट्र के परिदृश्य में उपर्युक्त बदलाव सिर्फ संकेतात्मक है। इसके साथ ही इनसे सम्बद्ध स्थितियों में भी बदलाव आएगा और बदलाव बहुत व्यापक होगा। इन बदलावों के प्रभाव से बहुत से रचनात्मक कार्य और गतिविधियां होने लगेंगी जिससे अभी जो हमारा देश पतन और भ्रष्टता की राह पर अधोगत है फिर से जीवंत होकर प्रगति के पथ पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होगा। नई शासन व्यवस्था स्थापित होने पर भारत सदियों बाद ब्रिटिश औपनिवेशिक संस्कृति, जो हमारी अपनी उच्च संस्कृति पर जानबूझ कर गलत उद्देश्य के लिए थोपी गयी थी, के मोहबंधन से मुक्त हो जायेगा और अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ जायेगा। तब कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की आकांक्षित स्थिति ‘‘तब भारत उस स्वतंत्रता के स्वर्ग में जागेगा'', तब गाँधी के सपनों के भारत का उदय होगा, और तब फिर अशांत विश्व इस नये भारत की ओर नई रोशनी और पथ प्रदर्शन के लिए उन्मुख होगा।