भारतीय शासन व्यवस्था परिवर्त्तन विचार मंच

इस अभियान को समझना - प्रश्नोत्तर के माध्यम से

  1. इस अभियान का उद्देश्य क्या है?
  2. भारत की वर्त्तमान शासन व्यवस्था का परिवर्त्तन कर अपेक्षित शासन व्यवस्था लाना इस अभियान का उद्देश्य है।

  3. भारत की वर्त्तमान शासन व्यवस्था का परिवर्त्तन क्यों अनिवार्य है?
  4. संसाधनों से समृद्ध एक उपनिवेश के शोषण के लिए अंग्रेजों ने इस शासन व्यवस्था की परिकल्पना और संरचना की थी। यह शोषण दीर्घकालीन और व्यवस्थित रूप से हो, इसके लिए यह आवश्यक था कि शासन व्यवस्था शोषण कुशलता के अलावा एक उच्च सभ्यता और संस्कृति संपन्न शासित जनता का नैतिक पतन भी सुनिश्चित कर सके। स्वतंत्र भारत की वर्त्तमान शासन व्यवस्था मूलतः वहीं व्यवस्था है। देश में सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार, गरीबी और गरीब-अमीर की बढ़ती खाई, सामाजिक अशांति और अन्तर्विद्रोह तथा राजनीति का उत्तरोत्तर नैतिक पतन इसी शासन व्यवस्था की उपज है। इन बुराइयों और विकृतियों को हम बिना शासन व्यवस्था परिवर्त्तन के नहीं दूर कर सकते।

  5. क्या स्वतंत्रता आंदोलन के समय स्वतंत्र भारत में शासन व्यवस्था परिवर्त्तन ही आंदोलन का अंतिम लक्ष्य था?
  6. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अधिष्ठाता महात्मा गाँधी का सपष्ट विचार था कि अंग्रेजों द्वारा भारत पर थोपी गई शासन व्यवस्था के फलस्वरूप ही देश का शोषण, इसकी बढ़ती गरीबी और लोगों का नैतिक पतन हो रहा है और जब तक इस शासन व्यवस्था को हटाया नहीं जाय, भारत इस तरह पतन की गर्त में जाते रहने को अभिशप्त रहेगा। अतः गाँधी के विचार में इस शासन व्यवस्था को हटाना ही भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति और उसके लिए आवश्यक संघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य और प्रेरणा था। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के क्रम में जब यह स्पष्ट हो गया कि इस शोषणकारी शासन व्यवस्था में ही अंग्रेजों का निहित स्वार्थ है तभी उन्होंने ''अंग्रेजों, भारत छोड़ो'' का ऐलान किया।

  7. तब फिर क्यों स्वतंत्र भारत में मूलतः वही शासन व्यवस्था अपना ली गयी?
  8. निवर्त्तमान ब्रिटिश सरकार और भारत के ऐसे वर्ग जो औपनिवेशिक शासन से लाभान्वित थे, जैसे ऊँचे नौकरशाह, सामंतवादी समुदाय, राजे-महाराजे तथा बड़े व्यापारिक परिवारें, समझते थे कि उनका हित उसी शासन व्यवस्था में सुरक्षित एवं सम्पुष्टित रहेगा और अतः चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में भी वही शासन व्यवस्था चलती रहे। ऐसे लाभान्वित वर्ग की मिली भगत से निवर्तमान ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान सभा इस तरह से गठित की कि इसमें भारत के लाभान्वित एवं अभिजात्य वर्गों का बाहुल्य हो। स्वतंत्र भारत के समृद्ध भविष्य के लिए दूर दृष्टि रखने वाले महात्मा गाँधी के कुछ अनुयायी भी, जो स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी नेता थे, उनके बहुत से विचारों, विशेषतया स्वतंत्र भारत के लिए समुचित शासन व्यवस्था का स्वरूप, से पूर्णतः सहमत नहीं थे। ऐसे लोग प्रचलित शासन व्यवस्था से सुपरिचित ही नहीं, अभ्यस्त भी थे और उनकी सोच इससे भिन्न या इसके परे नहीं जाती थी। वे इसी व्यवस्था के भीतर और इसी के आधार पर स्वतंत्र भारत की आकांक्षाओं को फलीभूत करना चाहते थे। इन्हीं सब कारकों की दुरभिसंधि से भारत को एक ऐसा संविधान मिला जिसमें एक तरफ तो एक उदीयमान गणतंत्र में जनता की ऊँची आकांक्षाओं को बखूबी अभिव्यक्त करता है, तो दूसरी ओर उन आकाक्षाओं की पूर्ति के लिए एक घिसी पिटी, सर्वथा अनुपयुक्त और विरोधाभासी शासनतंत्र को अपना लेता है। इस तरह से भारतीय संविधान सभा में भारतीय स्वतंत्रता के अधिष्ठाता गाँधी के प्रति विश्वासघात किया गया, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले और इसके लिए गाँधी के आह्वान पर अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले करोड़ों भारतीयों को ठगा गया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को ही, जो इसी शोषणकारी और नैतिक पतनपरक शासन व्यवस्था को हटाने के लिए ही था, नकार दिया गया।

  9. स्वतंत्र भारत के लिए कैसी शासन व्यवस्था गांधी जी चाहते थे एवं जिसके लिए वह जोरदार वकालत करते थे, और यह शासन व्यवस्था प्रचलित व्यवस्था से किस तरह भिन्न है?
  10. औपनिवेशिक शासन व्यवस्था, और मूलतः उसी पर आधारित वर्त्तमान शासन व्यवस्था, की अवधारणा है कि राजसत्ता पिरामिड की तरह ऊपर से नीचे की ओर चलती है। गाँधी जी के विचार में राजसत्ता व्यक्ति में केन्द्रित है, और जिस तरह किसी झील के शांत जल में पत्थर का एक टुकड़ा गिराने से उस केन्द्र से विभिन्न वृत्ताकार तरंगे उठती हैं, उसी तरह राजसत्ता व्यक्ति से निकल कर शासन के विभिन्न स्तरों, जैसे गाँव, राज्य और देश के शासन स्तरों पर फैलती है। इस अवधारणा में कोई शासन स्तर एक दूसरे से नीचे या ऊपर नहीं हैं। हर शासन स्तर का अपना कार्य और अधिकार क्षेत्र है और सभी शासन स्तर व्यक्ति के श्रोत से ही राजसत्ता पाता है। व्यावहारिक तौर पर, ग्राम सरकार, राज्य सरकार और राष्ट्रीय सरकारें होंगी। आधुनिक जीवन की जटिलताओं के आलोक में शासन के इस प्रमुख ढाँचे के तहत कुछ और शासन के स्तर हो सकते हैं। लेकिन शासन का कोई भी स्तर हो, वह राजसत्ता व्यक्ति के श्रोत से ही पायेगा। इस तरह, शासन व्यवस्था की इस अवधारणा में शासन पूर्णतः विकेन्द्रित होगा जबकि औपनिवेशिक और वर्त्तमान शासन व्यवस्था बहुत ही केन्द्रीकृत है। इसी अवधारणा के संदर्भ में ही गाँधी जी ने स्वतंत्र भारत में प्राथमिक शासन स्तर पर ‘‘ग्राम गणतंत्र’’ की जोरदार वकालत की थी।

  11. क्या प्राथमिक शासन स्तर पर ‘‘ग्राम गण्तंत्रों" के होने से विभिन्न स्वायत्त इकाइयों में अलगावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा तो नहीं मिलेगा और राष्ट्रीय सरकार उनसे निपटने में कमजोर या अक्षम तो नहीं हो जायेगी?
  12. ठीक इससे उल्टा। कोई जंजीर उतनी ही मजबूत होती है जितना उसकी सबसे कमजोर कड़ी। विभिन्न कारणों के संयोजन से कहा जा सकता है कि इस तरह की शासन व्यवस्था देश के भीतर या बाहर के विघटनकारी या अस्थिरता कारक तत्त्वों से निपटने में अधिक सक्षम होगी। जब गाँवों में ही स्वायत्त सरकारें होंगी, अन्तर्विद्रोह को पनपने या अपनी जकड़़ बनाने की कोई संभावना ही नहीं रहेगी। सीमा पार से आने वाली आतंकवादी या अस्थिरता कारक तत्त्वों को शासन तंत्र की मजबूत इकाइयों का पहले सामना करना पड़ेगा जिससे देश के अन्दर उनका घुसना बहुत ही कठिन हो जायेगा। फिर, जब लोगों के जीवन और जीने को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाली समस्याओं का समाधान शक्ति सम्पन्न गाँवों की सरकारों द्वारा ही हो जायेगा, तो राष्ट्रीय सरकार अपना ध्यान और ऊर्जा राष्ट्रीय समस्याओं और मुद्दों पर ज्यादा केन्द्रित कर सकेगी। और फिर, सरकारें जब लोगों की प्रत्यक्ष पहुँच में होंगी, तो उनका अपने राज्य या केन्द्र सरकारों से असंतुष्ट होने का न्यूनतम अवसर होगा। एक प्रभावशाली संविधान से संपोषित लोगों की साझी संस्कृति और इतिहास सुदृढ़ राष्ट्रीय भावना को पैदा करने और कायम रखने में कारगर होगा और लोगों को एक सूत्र में बाँधे रखेगा।

  13. क्या ग्राम गणतंत्र आर्थिक रूप में संभव होगा?
  14. वर्त्तमान शासन व्यवस्था में, जबकि गाँवों में विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत केन्द्रीय और राज्य सरकारों से ही निधि आती है, लोगों के दिमाग में ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है। इस बात को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिये, यह समझना आवश्यक है कि मूल रूप से राष्ट्रीय संसाधनों यथा जमीन, पानी, जंगल, खनिज और मानव शक्ति, शारीरिक और मानसिक दोनों, से राष्ट्रीय धन पैदा होता है और सरकारी खजानों में मूलतः इसी धन पर सरकारों द्वारा लगाए विभिन्न करों से निधि आती है। यह भी समझना चाहिए कि विभिन्न मात्राओं में हर गाँव इन संसाधनों से, जो धन पैदा करते हैं या कर सकते हैं, लैस है। शोषण और केन्द्रीयकरण पर आधारित वर्त्तमान शासन व्यवस्था में ऐसा लगता है कि सरकारी खजानों में करों के रूप में ज्यादातर धन शहरों और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों से आता है। विकेन्द्रीकृत शासन व्यवस्था में जो आवश्यक रूप से शोषण और केन्द्रीकरण विहीन होगी, राजस्व वसूली व्यवस्था में ढ़ाँचागत परिवर्त्तन करने से प्रायः हर गाँव न सिर्फ आर्थिक रूप से स्वशासन के लिए आत्मनिर्भर होगा, बल्कि राज्य और राष्ट्रीय खजानों के लिए भी अपना अंशदान दे सकेगा जिससे ये सरकारें अपने उत्तरदायित्व और भूमिका निभा सकें।

  15. परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में आज भारत में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार की क्या स्थिति रहेगी?
  16. शोषण और लोगों के नैतिक पतन पर आधारित वर्त्तमान शासन व्यवस्था जो कि पिरामिड के ढाँचे में प्रशासनिक शक्तियों के केन्द्रीकरण द्वारा सुसाध्य होती है, भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित ओर सम्पोषित करती है। परिवर्तित शासन व्यवस्था समस्तरीय ढ़ाँचे में होगी जिससे शासन भागीदारी वाला और विकेन्द्रीकृत होगा और जो शोषण और अनैतिकता से विहीन होगा। ऐसी शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार न पनपेगा, न टिकेगा। एक अनुमान है कि परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में 90% से 95% वर्त्तमान भ्रष्टाचार अन्तर्धान हो जाएगा। इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक अपवाद होगा, न कि एक प्रथा और यह व्यक्ति के नैतिक विपथगमन के चलते होगा न कि व्यवस्था द्वारा प्रोत्साहित करने और सुसाध्य बनाने से। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से यदि 1 रूपया गाँव के किसी काम के लिए भेजा जाता है तो उस गाँव में 15 पैसा ही पहुँच पाता है। शेष 85 पैसे कहाँ जाता है? स्पष्ट है कि वह भ्रष्टाचार और घोटालों के रूप में व्यवस्था के संचालकों और बिचौलियों के पॉकेट में जाता है। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में गाँव के काम के लिए एक रूपया गाँव में ही जमा और खर्च होगा। इस रूपये को गाँव से दिल्ली और फिर दिल्ली से गाँव तक की यात्रा, जिसमें 85 पैसा भ्रष्टाचार और घोटालों में विलुप्त हो जाता, नहीं करनी पड़ेगी। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था की यह और अन्य विशेषताओं के आलोक में यह कहना तर्कसंगत है कि वर्त्तमान व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का 90% से 95% नयी व्यवस्था में स्वतः समाप्त हो जायेगा।

  17. परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में विकास का क्या परिदृश्य होगा?
  18. जैसा कि प्रश्न सं॰ 8 के उत्तर में कहा गया है अभी केन्द्र सरकार द्वारा भेजी गयी राशि का 15% ही गाँव के विकास कार्य के लिए गांव में पहुँचता है। कमोबेश गाँव में राज्य सरकार सम्पोषित विकास योजनाओं की भी यही स्थिति है। यह समझना आवश्यक है कि केन्द्र द्वारा गाँव के लिए भेजी गयी राशि जिस राष्ट्रीय खजाने से आती है उसमें सिर्फ लोगों द्वारा, जो तत्त्वात्मक रूप से विश्लेषण करने पर गाँव के लोगों द्वारा भी, कर के रूप में दी गयी राशि है।

    जैसा कि सर्वविदित है कि कर प्रणाली में भ्रष्टाचार व्याप्त है, यह मानना अयुक्तिसंगत नहीं होगा कि लोगों के द्वारा किसी न किसी रूप में दिये गये कर के 1 रूपया में सिर्फ 50 पैसे ही दिल्ली के राष्ट्रीय खजाने में पहुँचता है। इस तरह लोगों द्वारा उनके विकास के मद में दी गयी राशि का सिर्फ 7.5% ही कर गाँव में विकास के लिए पहुँचता है। शेष 92.5% राशि गाँव से दिल्ली और दिल्ली से गाँव तक की यात्रा में विलुप्त हो जाती है। कुछ इसी तरह की विलोपकारी प्रक्रिया होती है जब लोगों का पैसा गाँव से राज्य की राजधानी और उस राजधानी से गाँव की यात्रा करता है। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में गाँव के लोगों के पैसों की ये यात्राएँ नहीं होंगी जिससे लोगों द्वारा दिए हुए पैसे का प्रायः 100% उनके विकास कार्यों में ही लगेगा, जो उनके जीवन और जीने को समुन्नत करेगा। और, केन्द्र और राज्य सरकारें भी उन विकास योजनओं पर ज्यादा ध्यान दे सकेंगी जो उन्हीं के स्तर पर सम्पादित होना है। इस परिवर्तित शासन व्यवस्था में विकास की गति समग्र रूप से कम से कम 10 गुना तेज होगी। और फिर, अधिकांश विकास वहाँ होंगे जहाँ अधिकांश लोग रहते हैं। विकास के ऐसे परिदृश्य में निम्नलिखित बातों में प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होंगे, (1) विभिन्न क्षेत्रों के बीच तथा गाँव और शहर में व्याप्त विकास का असंतुलन समाप्त हो जायेगा और (2) गाँव के जीवन में गुणात्मक सुधार होगा और गाँवों में रोजगार के अवसर सृजित होंगे जो गाँवों से शहरों की ओर पलायन को समाप्त कर देगा।

  19. देश में व्याप्त सामाजिक अशांति और अन्तर्विद्रोह पर परिवर्त्तित शासन व्यवस्था का क्या प्रभाव होगा?
  20. समाज के किसी वर्ग में जब ऐसी अनुभूति होती है कि वर्त्तमान समाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था द्वारा वे उत्पीड़न और अन्याय के शिकार हैं और सरकार न सिर्फ इस समस्या पर ध्यान ही नहीं देती है बल्कि इसे सम्पोषित भी करती है, तो समाजिक अशांति उत्पन्न होती है। इससे इस वर्ग को सरकार से विरक्ति ही नहीं वैमनस्य की भावना भी पनपने लगती है। जब इन्हें ऐसा भान होने लगता है कि दूरस्थ सरकार न सिर्फ उनकी व्यथा नहीं सुनती और उसे कम करती है, बल्कि उत्पीड़न और अन्याय का पोषण भी करती है तो वे इस व्यवस्था से विमुख और सरकार के विरूद्ध हो जाते हैं, जिससे अन्तर्विद्रोह प्रस्फुटित और प्रोत्साहित होता है। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में जब सरकार उसी गाँव में होगी जहाँ वे रहते हैं, उन्हें न सिर्फ अपनी व्यथा सुनाने का बिल्क उन्हें स्वयं सरकार में शामिल होने का और प्रभावित करने का भरपूर अवसर रहेगा। ऐसी स्थिति में सामाजिक अशांति और अन्तर्विद्रोह का जन्म ही नहीं होगा।

  21. क्या परिवर्त्तित शासन व्यवस्था का देश में व्याप्त गरीबी और आर्थिक असमानता की स्थिति पर कोई प्रभाव होगा?
  22. वर्त्तमान शासन व्यवस्था जो मूलतः औपनिवेशिक शासन व्यवस्था का ही अनुवर्ती है, शोषणात्मक है। जब भारत गुलाम था, इस शोषण के लाभार्थी थे अंग्रेज और भारतीयों के वे वर्ग जो किसी न किसी रूप में इस शोषण में सहायक थे। भारतीय जन समुदाय इस शोषण का शिकार था जिसके फलस्वरूप वे दिनों-दिन गरीब होते चले गए। स्वतंत्र भारत में जहाँ मूलतः वही शासन व्यवस्था लागू है, इस शोषण के लाभार्थी वे लोग हैं जो शासन तंत्र को या तो नियंत्रित करते हैं या किसी न किसी रूप से प्रभावित कर सकते हैं। इस तरह भारत का यह लाभार्थी वर्ग भारतीय जनसमूह, जो अधिकांशतः गाँवों में रहता है, की कीमत पर धनी होता गया। चूँकि परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में यह शोषण नहीं रहेगा, उत्पादित राष्ट्रीय धन न्यायोचित रूप से समाज के विभिन्न वर्गों में वितरित होगा जिससे गरीबी और आर्थिक असमानता दोनों घटेगी। नब्बे के प्रारंभिक वर्षों में तथाकथित ''आर्थिक सुधारों'' के लागू होने के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में एक दूसरा तत्त्व कार्यशील हो गया। भारत के बड़े बाजार को बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों और विदेशी कंपनियों को निर्बाध दोहन करने की खुली आजादी दे दी गयी। चूँकि मुनाफा कमाना इस दोहन का प्रबल उद्देश्य है, भारत का मध्यम वर्ग जो इस दोहन में इन प्रतिष्ठानों और कंपनियों को विभिन्न रूपों से सहायता करता है, जहाँ दृश्य रूप से अपनी आर्थिक बढ़ोत्तरी करता है, वहीं अदृश्य रूप से भारतीय जनसमूह और गरीबी की ओर बढ़ता है। यह समझना आवश्यक है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में यह मूलभूत परिवर्त्तन भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अभिव्यक्त भारतीय जनसमूह की संवैधानिक आकांक्षाओं की घोर अवहेलना करता है, और वर्त्तमान शासन व्यवस्था में जनसमूह अपने ऊपर थोपा गया इस मूलभूत आर्थिक परिवर्त्तन का प्रतिकार करने में सर्वथा असहाय महसूस करता है। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में जब जनता नीचे स्तर से ही प्रभावी रूप से सशक्त हो जायेगी, इसकी समाजवादी आकांक्षाओं का सिर्फ अभिज्ञान और सम्मान ही नहीं, इनपर प्रभावी कदम भी उठाया जा सकेगा, जिससे जनता का दोहरा शोषण नहीं हो। ऐसा होने से गरीबी और आर्थिक असमानता की स्थिति में काफी सुधार होगा।

  23. परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में राजनीतिक वृत्ति और व्यवहार में क्या आज जो देखा जा रहा है उसमें ऐसा ही नैतिक अधोपतन रहेगा या स्थिति कुछ भिन्न होगी?
  24. किसी भी देश का राजनीकि स्वरूप वहाँ की शासन व्यवस्था से परिभाषित और तय होता है। वर्त्तमान शासन व्यवस्था में, जो मूलरूप से लोगों के शोषण और नैतिक पतन के लिए बनाई गई थी, राजसत्ता देश और राज्यों की राजधानियों में कतिपय बिन्दुओं पर ही केन्द्रीकृत है। अतः देश की पूरी रजनीति इन बिन्दुओं पर केन्द्रित राजसत्ता को पाने को उन्मुख है। चूँकि यह शासन व्यवस्था तथाकथित ''संसदीय लोकतंत्र'' से संचालित है, जिसमें राजनीतिक दलों की भूमिका अनिवार्य है, बहुत से क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल उभरे हैं, जो बिना सिद्धांतों और नैतिकता की परवाह किए सत्ता केन्द्रित राजनीति करते हैं। इन दलों का चरित्र और स्वरूप इसी तरह की राजनीति से परिभाषित है। किसी भी दल का अनिवार्य रूप से कोई राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक सिद्धांत और कार्यक्रम नहीं है; किसी भी दल का जन समुदाय के विशाल निचले स्तर पर कोई ठोस आधार नहीं है; किसी दल का फंड और खाता पारदर्शी और विश्वसनीय नहीं है; किसी भी दल में आंतरिक लोकतन्त्र नहीं है; और भारतीय गणतंत्र के प्रायः हर दल के नेतृत्व में पारिवारिक परम्परा की स्पष्ट झलक है जिसमें अंतिम निर्णय उसका सुप्रीमों करता है। चूँकि सत्ता वोट के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है, जनता का वोट पाने के लिए प्रायः हर दल विभिन्न तरीकों और तिकड़मों को अपनाने में कोई परहेज नहीं करता। जनता उनके लिए ''वोट बैंक'' बन कर रही गयी है। इस राजनैतिक खेल में जाति, सम्प्रदाय या समाज को बाँटने वाली अन्य भावनाओं को उभारने में कोई नैतकिता आड़े नहीं आती। इस तरह की राजनीति के चलते आज भारतीय समाज विभिन्न दरारों से विखंडित हो गया है, यथा हिंदू बनाम मुस्लिम, दलित बनाम गैर दलित, पिछड़ा बनाम अगड़ा, महाराष्ट्री बनाम उत्तर भारतीय, एवं गरीब बनाम अमीर।

    परिवर्त्तित शासन व्यवस्था में जहाँ सत्ता पूर्णरूपेण विकेन्द्रित हो जायेगी और आम जनता सशक्तीकृत होगी, राजनीति का स्वरूप ही बदल जायेगा। जहाँ सत्ता कुछ खास बिन्दुओं पर केन्द्रित नहीं होकर भारत के लाखों गाँवों तथा अन्य निकायों में स्थापित हो जायेगी, यह वैयक्तिक स्वार्थ सिद्धि का साधन न होकर जन सेवा का माध्यम बन जायेगी। राजनीतिक वृत्ति और व्यवहार तदनुरूप ही परिवर्त्तित हो जायेगा। तब समाज के विचारवान, प्रबुद्ध, दूरद्रष्टा और समर्पित व्यक्ति राजनीतिक वृत्ति की ओर आकर्षित और प्रेरित होंगे और राजनीति के स्तर को उर्द्धवगामी बनाएंगे।

  25. वर्त्तमान शासन व्यवस्था को कैसे बदला जा सकता है?
  26. भारतीय संविधान की संरचना के अन्तर्गत यथास्थापित तरीकों से वर्त्तमान शासन व्यवस्था में वांछित बदलाव लाया जा सकता है। वर्त्तमान शासन व्यवस्था, जो कार्यरूप से ळवअजण् व िप्दकपं ।बज 1935 का ही स्वरूप है, भारतीय संविधान में परिभाषित और वर्णित है। इस संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्र भारत में जनता की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं भी उल्लेखित है। भारतीय गणतंत्र के छः दशकों के अनुभव से स्पष्ट है कि यह शासन व्यवस्था उन आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को फलीभूत करने में अक्षम रही है और ऐसा इसलिए कि यह व्यवस्था इसके लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। सिर्फ यही नहीं, इस व्यवस्था ने देश को कइ बुराइयों से भी आक्रांत कर दिया है यथा भ्रष्टाचार, अन्तर्विद्रोह और आर्थिक असमानता। भारतीय संविधान में समुचित संशोधन कर यह शासन व्यवस्था बदली जा सकती है। संवैधानिक प्रावधान के अनुसार यदि ससंद के दोनों सदन दो-तिहाई बहुमत से कोई संशोधन कर देते हैं तो संविधान संशोधित हो सकता है। जब ऐसा संशोधन विधेयक पारित होकर राष्ट्रपति की सहमति के बाद अधिनियम बन जाता है, तो उसका कार्यान्वयन प्रशासनिक कार्रवाइयों से किया जा सकता है, जिसे करने में तत्कालीन सरकार पूर्णतः समर्थ होगी। इस तरह, इस देश में परिवर्त्तित शासन व्यवस्था स्थापित की जा सकेगी जिससे जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप एक नये भारत का अभ्युदय और अभ्युत्थान होगा।

  27. शासन व्यवस्था परिवर्त्तन हेतु उपर्युक्त कार्रवाई के सम्पादन के लिए इस अभियान का क्या कार्यक्रम है?
  28. शासन व्यवस्था परिवर्त्तन अभियान दो स्पष्ट किन्तु अन्तर्प्रभावी चरणों में सम्पादित किया जाना है। ‘जागृति, शिक्षा और प्रेरणा’ के पहले चरण में लोगों को वांछित परिवर्त्तन के लिए जागृति लाना, शिक्षित करना और इस हेतु उन्हें क्या करना है, उसके लिए प्रेरित करना है। ''भारतीय शासन व्यवस्था परिवर्त्तन मंच'' के तत्वाधान में यह चरण सम्पादित करना है। इसके लिए सूचना और संचार के विभिन्न साधनों, यथा मुद्रित, इंटरनेट, दूरसंचार, श्रव्य-दृश्य माध्यमों और जनसभा एवं सम्मेलनों का सहारा लिया जायेगा। ''राजनीतिक कार्रवाई'' के दूसरे चरण में एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल जिसे आरंभिक रूप से ''लोक सेवा विकास दल''(लोसेविद) कहा जा सकता है गठित किया जायेगा जिसका प्रमुख राजनीतिक एजेंडा होगा देश की शासन व्यवस्था में वांछित परिवर्त्तन लाने के लिए संवधिान में समुचित संशोधन लाना। इस के लिए इसे वे सभी आवश्यक सांगठनिक, राजनीतिक और चुनावी कार्रवाई करनी होगी तथा इसी के लिए यह दल विशेष रूप से प्रायोजित होगा।

    ''भारतीय शासन व्यवस्था परिवर्त्तन मंच'' तथा ''लोक सेवा विकास दल'' के तत्त्वाधान में इस अभियान के दोनों चरणों में होने वाले विभिन्न कार्यों के लिए एक राष्ट्रव्यापी सांगठनिक संरचना बनानी होगी जिसमें प्रधान कार्यालय से लेकर राज्य, जिला या लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र, अंचल तथा गाँवों के स्तर पर कार्यालय होंगे। इन कार्यालयों में समुचित रूप से प्रशिक्षित और समर्पित स्थानीय कार्यकर्त्ता और अधिकारी होंगे।

  29. इस अभियान की सफलता के लिए क्या आवश्यक है?
  30. किसी भी अभियान की सफलता के लिए मूलभूत आवश्यकता है कि जिस मौलिक धारणा और विचार पर वह अभियान आधारित है वह कितना तर्कसंगत तथा परिपक्व है। चूँकि इस अभियान का आधार युगद्रष्टा महात्मा गाँधी की अवधारणा और विचार एवं दुनिया के जीवंत अनुभव हैं, यह इस मूलभूत आवश्यकता को पूरा करता है। आधुनिक संदर्भ में इन अवधारणाओं और विचारों का सुदृढ़ीकरण तो एक सतत प्रक्रिया रहेगी। इसके बाद, दो और आवश्यकताएं हैं, (1) एक कार्य कुशल और अनुशासित संगठन, तथा (2) मानव तथा आर्थिक संसाधन। इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समर्पित प्रयास करना होगा।

  31. कौन इस अभियान की सफलता में योगदान दे सकता है और किस रूप में?
  32. कोई भी जो इस अभियान की मौलिक अवधारणाओं और विचारों से सहमत है वह इसकी सफलता में निम्नलिखित रूप से योगदान दे सकता है।

    (1) वह अभियान से सम्बद्ध संगठन (''भारतीय शासन व्यवस्था विचार मंच'' या/ और ''लोक सेवा विकास दल'') की सदस्यता ग्रहण करके इसकी गतिविधियों में भाग लेकर इन अवधारणाओं और विचारों को विभिन्न तरीकों से प्रचार कर सकता है।

    (2) वह इस अभियान के संचालन हेतु आर्थिक सहायता दे सकता हे।

    (3) हर व्यस्क भारतीय नागरिक ‘‘लोक सेवा विकास दल’’, जो भारतीय शासन व्यवस्था में वाछिंत परिवर्त्तन लाने के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित होगा, के उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव में मतदान देकर इस दल को आवश्यक बहुमत दिला सकता है और इस तरह इस अभियान को सफल बना सकता है।

  33. क्या पंचायती राज कानून का कार्यान्वयन इस अभियान, जो मूलतः सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना चाहता है, के उद्देश्यों को नहीं पूरा करता?
  34. स्वतंत्र भारत में ''ग्राम गणतंत्र'' की गाँधी जी की अवधारणा या अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश में कार्यरत ''गाँव की सरकार'' भारत में 1992 में संवैधानिक संशोधन के द्वारा पारित पंचायती राज कानून के अन्तर्गत लायी गयी व्यवस्था से मूलतः और महत्त्वपूर्ण ढंग से भिन्न है। संवधिान निर्माण के समय गाँधी जी के सम्मानार्थ उनके विचारों कों ''राजकीय नीति के निर्देशक सिद्धान्त'', जिसके कार्यान्वयन की कोई सेवैधानिक वाध्यता नहीं है, के अन्तर्गत डाल दिया गया था। भारत के स्वतंत्र होने और गणतंत्र बनने के चालीस वर्षों से भी अधिक अवधि के बाद पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिये संविधान का यह संशोधन लाया गया। हमें इस पंचायती राज के सच्चे स्वरूप और विशिष्ट गुणों को समझने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना होगा।

    (i) जिस तरह से राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार है, उस तरह से ‘पंचायती राज' अपने स्तर की सरकार नहीं है। वास्तव में ‘सरकार’ की जो सर्वमान्य परिभाषा है, उसके अनुसार ‘पंचायती राज’ कोई सरकार नहीं है। वह तो राज्य सरकार का ही एक विस्तारित अंग है जो जनता द्वारा निर्वाचित होता है और जिसे राज्य सरकार द्वारा कुछ निर्धारित प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न कराने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है।

    (ii) उपर्युक्त कार्यां को सम्पन्न करने के लिए पारम्परिक रूप से राज्य सरकार का अपना भी प्रशासनिक तंत्र है। चूँकि पंचायती राज संस्थाओं का अपना कोई प्रशासनिक तंत्र नहीं है, सिद्धान्ततः उन कार्यों को सम्पन्न करने के लिए उन्हें राज्य सरकार के ही प्रशासनिक तंत्र का उपयोग करना है। इससे दो बातें होती हैं, (i) एक तो प्रशासनिक नियंत्रण के दुहरेपन तथा प्रशासनिक अधिकर क्षेत्र में विरोधाभास होने से कार्यों का कुशल सम्पादन नहीं हो पाता, और दूसरे (ii) सरकारी मानसिकता और नैतिकता स्थानीय स्तर पर भी आ जाती है और फलतः पंचायती राज संस्थाओं के कार्यकलाप भी भ्रष्टाचार के संस्कार से आक्रांत हो जाते हैं।

    पंचायती राज’ के उपर्युक्त स्वाभाविक दुर्गणों का किसी भी प्रशासनिक उपायों से निराकरण नहीं किया जा सकता। परिवर्त्तित शासन व्यवस्था का वैचारिक आधार है कि राजसत्ता व्यक्ति में निहित है और वहीं से निकलकर विभिन्न स्तरों की सरकारों को सत्तावान बनाती है, इसलिए ग्राम सरकार, जो शासन का प्रथम स्तर होगा, अपने अधिकर क्षेत्र में आने वाले सभी कार्यों का सम्पादन करने के लिए पूर्णतः सक्षम और सशक्त होगी, जिससे एक उत्तरदायी, संवेदनशील, सहभागितापूर्ण तथा नैतिक शासन का उदय होगा।

  35. क्या यह वांछनीय नहीं होगा कि प्रारंभ में शासन व्यवस्था परिवर्त्तन एक छोटे और प्रबंध में आसान स्तर जैसे कि एक गाँव या एक प्रखंड या एक जिला के स्तर पर किया जाय और फिर उस अनुभव का लाभ लेते हुए शासन व्यवस्था परिवर्त्तन बड़े स्तर पर किया जाय यथा एक राज्य और फिर पूरे देश में?
  36. साधारणतया, और विशेष कर सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ में, एक छोटे स्तर पर इस उद्देश्य से किया हुआ प्रयोग कि इसके परिणाम और अनुभव के आधार पर ही बड़े स्तर पर इसे उतारा जाएगा, की रणनीति सर्वथा अनुपयुक्त और कम से कम निरूत्साहक और निराशाजनक होगी। इस मामले में कोई छोटा स्तर, बड़े स्तर या पूर्ण इकाई से इतने अभिन्न या जटिल रूप से जुड़ा हुआ है कि छोटे स्तर पर प्रयोग के लिए समुचित स्थिति लाई ही नहीं जा सकती। छोटे स्तर की स्थितियां बड़े स्तर की स्थितियों से अप्रभावित रह ही नहीं सकती। स्थानीय स्तर या किसी और छोटे स्तर का शासन राज्य या केन्द्र की शासन व्यवस्था से अभिन्न रूप से जुड़ा है। अतः शासन व्यवस्था का परिवर्तन सम्पूर्ण इकाई पर ही किया जा सकता है, न कि उसके एक भाग पर।

  37. चूँकि इस अभियान का उद्देश्य राष्ट्र की शासन व्यवस्था में एक मौलिक परिवर्त्तन लाना है, जिससे बहुत सी चिरपरिचित संस्थाएं, आदतें और व्यवहार अस्त-व्यस्त हो जाएंगे, क्या यह वांछनीय नहीं होगा कि यह परिवर्त्तन धीरे-धीरे, या विभिन्न चरणों में या क्रमिक सुधारों द्वारा लाया जाय?
  38. जिन संस्थाओं से हम रूबरू होते हैं, या जो हमारी आदतें बन जाती है या जिन व्यवहारों में हम लिप्त होते हैं, वे सब उस आधारभूत शासन व्यवस्था से बनती हैं। शासन व्यवस्था परिवर्त्तन निस्सन्देह उनको बदल देगा या प्रभावित करेगा। इस परिवर्त्तन और प्रभाव को लाने में किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं है, और न ही किसी में यह शक्ति होगी कि वह इस बदलाव या प्रभाव को रोक सके या इनकी गति को कम कर सके। हमें सिर्फ यही सोचना है कि यह शासन व्यवस्था परिवर्त्तन लाया जाय या नहीं। भारत की जनता को संस्थाओं, आदतों और व्यवहारों में परिवर्त्तनों के अनुरूप अपने को अनुकूलित करने की असाधारण क्षमता और लचीलापन है। इतिहास के बहुत से अवसरों पर भारत की जनता ने इसे प्रमाणित कर दिखाया है, जैसे अपने देश के ही राजाओं के बदले एक विदेशी औपनिवेशिक शक्ति का राज्य, या फिर एक लोकतांत्रिक गणतंत्र के स्थापित होने पर, चाहे वह गणतंत्र अधूरा ही क्यों न हो। अतः हमें यह समझना होगा कि (1) भारत में शासन व्यवस्था परिवर्त्तन अनिवार्य और अपरिहार्य हे, (2) इस परिवर्त्तन से उन संस्थाओं, आदतों और व्यवहारों जिनके हम जानकार और अभ्यस्त हो चुके है, में बदलाव अवश्यसंभावी है, (3) हम इन बदलाओं में अपने को अनुकूलित करने की सराहनीय क्षमता रखते हैं, (4) अतः इस कारण से भारत में शासन व्यवस्था परिवर्त्तन की दिशा या गति में किसी बदलाव की कोई आवश्यकता नहीं है और हमें इसकी चिंता अनावश्यक है।

  39. जब तथाकथित प्रगतिशील प्रस्तावों, यथा ''विधायिकाओं में महिला आरक्षण विघेयक'' या ''लोकपाल विधेयक'' को कार्यान्वित करने में वर्षों नहीं दशकों तक लग रहे हैं तो भारत जैसे एक विशाल देश की शासन व्यवस्था परिवर्त्तन करने में तो असाधारण रूप से लम्बी अवधि लग सकती है। इस बीच राष्ट्र को आक्रांत करने वाली भीषण समस्याएं यथा ‘भ्रष्टाचार’ या ‘माओवाद’ और भी विकराल होती चली जाएंगी, जिससे जनजीवन और भी बुरी तरह प्रभावित होता रहेगा। इस संदर्भ में राष्ट्र के लिए क्या यह वांछनीय नहीं होगा कि वह इन समस्याओं की ओर ज्यादा ध्यान दे और उनका प्रभावकारी निदान करे, न कि शासन व्यवसथा परिवर्त्तन जैसे अस्पष्ट या कम से कम लम्बा समय लगने वाले प्रयास में अपने को उलझाए?
  40. भारतीय शासन व्यवस्था परिवर्तन के इस अभियान को पूरी और अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित बातों को आश्वस्त होकर ध्यान में रखना आवश्यक है। (1) पहली बात, सभी बुराइयां और समस्याएं जिनसे देश आक्रांत है, वे एक स्वतंत्र देश के लिए अपनायी गई वह औपनिवेशिक शासन व्यवस्था है जो उसके शोषण और लोगों के नैतिक पतन के लिए बनाई और लाई गयी थीय पिछले साठ सालों की भारतीय गणतंत्र की यात्रा का अनुभव है कि ये बुराइयां और समस्याएं बद से बदतर ही होती गयी हैं और किसी भी प्रशासनिक या विधिक उपायों से, चाहे वे कितना भी कठोर क्यों न हो, उनका निदान नहीं हो सकता। (2) दूसरी बात, यदि वर्त्तमान शासन व्यवस्था को बदल कर वह शासन व्यवस्था लाई जाती है जिसकी गांधीजी ने स्वतंत्र भारत के लिए मरते दम तक जोरदार सिफारिश और वकालत की थी और जो एक वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक अमेरिका जैसे देश में क्रियाशील है, तो भ्रष्टाचार, ‘माओवाद’ और देश की अन्य समस्याएं पनप ही नहीं और सर ही नहीं उठा सकती। (4) तीसरी बात, भारत में यह शासन व्यवस्था परिवर्त्तन अहिंसक, संवैधानिक तथा लोकतांत्रिक ढंग से किया जा सकता है और यह कुछ ही वर्षों में देश में आम चुनाव के माध्यम से हो सकता है। इसके लिए जनता को इस अभियान के प्रति जागरूक करने, परिवर्त्तन के औचित्य और अपरिहार्यता में शिक्षित करने और उन्हें इसके लिए भारत के नागरिक की भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। आज के युग में जहाँ सूचना और संचार के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांतिकारी विकास हुआ है, यह काम अपेक्षाकृत बहुत ही आसानी से किया जा सकता है। यह ठीक है कि इसके लिए एक अनुशासित और कार्य कुशल संगठन तथा पर्याप्त आर्थिक और अन्य संसाधन आवश्यक है। राष्ट्र के इतने महत्त्वपूर्ण मिशन के लिए ये चीजें करने के लिए हम लोग निस्संदेह सक्षम हैं।